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व्यंग ग़ज़ल



ये गठबंधन सियासत का अजब मंजर दिखता है
जो अक्सर घोषणा करने से पहले टूट जाता है

जो मुर्गा बांग देकर सारी दुनिया को जगाता है
छुरी चलने से पहले पेटभर दाने वो खाता है।

जो वादे ओढ़ता है और वादों को बिछाता है
वो मतदाता तो भूखे पेट भी नारे लगाता हे।

वो रोता हे कभी खुद पर कभी खुद को हसाता  हे
मगर लंगड़ी सियासत में कलाबाज़ी दिखाता है।

वो जब पिछड़े हुए लोगो के आगे गिड़गिड़ाता है
वो शातिर भेड़िया हे भेड़ की सूरत में आता है।

वो जनता को फ़क़त बारात की घोड़ी समझता है
जिसे अपने इलेक्शन में वो जीभर कर सजाता हे।

किसी भी पक्ष की बाते उसे अच्छी नहीं लगती
वही नेता सफल हे जो अलग भौंपू बजाता है।

सियासत की अजब बारात हे किस से कहे 'नीरव '
जो फूफा को मनाते है तो मामा रूठ जाता हे।


(व्यंग तरंग से)
पंडित सुरेश नीरव


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